अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस
कंचन शर्मा : अधिशाषी अभियंता साहित्यकार व स्तंभकार : 25 नवंबर को हर साल अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ ने 17 नवंबर 1999 को की थी। वर्ष 2000 से हर साल 25 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय हिंसा उन्मूलन दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। उद्देश्य था महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों को खत्म करना। मौजूदा दौर में महिला सुरक्षा के मायने बेहद अहम हैं। फिर चाहे वह घर पर हों, घर से बाहर या फिर कार्यस्थल पर। 21वीं सदी में कठोर कानून होने के बावजूद भी महिलाओं के साथ यौन उत्पीडऩ, छेडख़ानी, वेश्यावृत्ति, गर्भधारण के लिए विवश करना, महिलाओं और लड़कियों की खरीद-फरोख्त जैसा क्रम जारी है। विश्व की छोडिय़े, भारत की ही बात करें तो आज भी 35 फीसदी महिलाएं माता-पिता के घर में भी हिंसा का शिकार होती हैं।
जन्म से ही उनको परिवार में दोयम दर्जे का स्थान देना अभी भी बहुत से परिवारों की परंपरा में शामिल है। आंकड़े आहत करने वाले हैं, देश में महिलाओं के विरुद्ध प्रति घंटे 26 अपराध दर्ज किए जाते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार करीब 70 फीसदी महिलाओं को अपने जीवन में कभी न कभी शारीरिक अथवा मानसिक शोषण का सामना करना पड़ा है। पिछले कुछ सालों के दौरान हिमाचल जैसे शांतिप्रिय राज्य में भी महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के आंकड़े में बढ़ोतरी हुई है, जो यह साबित करने के लिए काफी है कि महिलाएं आज भी पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं हैं।
कई बार तो महिला समानता या महिला सशक्तिकरण की बातें किताबी सी महसूस होती हैं। महिलाओं में या उनके परिजनों में सुरक्षा के प्रति चिंता होना न केवल समाज के लिए शर्मनाक है, बल्कि हमारी सोच पर भी सवाल खड़ा करती है। बेटियां तभी अनमोल हो सकेंगी, जब हम उनकी कद्र करने लगेंगे। ऐसा माहौल ही न बनाएं कि उनमें असुरक्षा की भावना पैदा हो, बल्कि ऐसा वातावरण दें कि वे खुलकर जीने की आजादी महसूस कर सकें। अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस के मौके पर अपने-अपने क्षेत्र में महारत हासिल कर चुकीं कुछ महिलाओं ने हिमाचल दस्तक के साथ साझा किए अपने विचार…
हाल ही में हिमाचल में राजदेई नामक 83 वर्षीय वृद्धा के साथ हुए अमानवीय व्यवहार ने समाज को अंदर तक झिंझोड़कर रख दिया। ऐसी महिला जिसका पति नहीं, बेटा नहीं और उसे अशक्त मान देव प्रकरण का पाखंड कर जो बर्बरता की गई, वो न केवल महिला सशक्तिकरण के नाम पर जोरदार चांटा है वरन संपूर्ण विश्व में महिलाओं के साथ हो रहे उत्पीडऩ की पराकाष्ठा है।
प्राचीन भारत से मध्यकालीन व आज वर्तमान भारत में महिलाओं की स्थिति का आकलन किया जाए तो उसकी दशा व दिशा में परिवर्तन होते रहे हैं। प्राचीन भारत में जहां नारी को शक्तिपुंज व देवी का दर्जा दिया गया, वहीं मध्यकालीन भारत में पुरुष सत्ता ने हावी होकर नारी को चारदीवारी तक सीमित कर दिया। इस काल में महिलाओं को सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक भेदभाव के साथ शारीरिक, मानसिक व यौन उत्पीडऩ का सामना करना पड़ा जो आजतक बरकरार है।
हालांकि समाज सुधारकों ने महिलाओं के प्रति समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को खत्म कर उन्हें शिक्षा के माध्यम से समाज में सिर उठाकर चलने के योग्य बनाया और आज की नारी हर क्षेत्र में परचम लहरा रही है। लेकिन सदियों के उत्पीडऩ के चलते अधिकांश महिलाओं ने इसी तरह जीने को अपनी नीयति मान लिया और कहीं न कहीं महिलाएं भी महिलाओं के उत्पीडऩ की भागीदार रहीं। उन्होंने अपनी कुंठाओं को महिला के ऊपर ही थोपा। महिलाओं या संपूर्ण स्त्री जगत के साथ हिंसा व उत्पीडऩ की समस्या भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्वभर में पसरी हुई है।
आज स्त्री जाति के साथ पहला उत्पीडऩ भ्रूण हत्या के रूप में तांडव मचा रहा है। घरेलू हिंसा के अलावा आंकड़ों के अनुसार हर तीन में से एक महिला अपने जीवनकाल में कभी न कभी घर, बाहर या कार्यालय में मानसिक हिंसा व यौन उत्पीडऩ की शिकार होती है। विश्व में करोड़ों महिलाएं खतने का दर्द झेलती हैं, बलात्कार की घटनाएं 83 फीसदी बढ़ी हैं, दहेज की घटनाएं, महिलाओं की हत्या के मामलों में बढ़ोतरी तो हो ही रही है साथ में मानव तस्करी में भी महिलाओं की तस्करी भी 70 फीसदी है, शील भंग के प्रयास के मामले भी बढ़ते ही जा रहे हैं। सभी आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व में महिलाओं की स्थिति किस कदर खराब हो चुकी है।
हम केवल चंद महिलाओं व एक विशेष वर्ग की महिलाओं को देखकर महिलाओं की स्थिति का अंदाजा नहीं लगा सकते। हां, उत्पीडऩ के खिलाफ महिलाओं का स्वर मुखर हुआ है। ‘मलाला’ जिसकी मिसाल है। ‘मीटू’ पर हालांकि सोशल मीडिया में ट्रोल किया गया, मगर यौन उत्पीडऩ करने से पहले एक रसूखदार उसके अंजाम के बारे जरूर सोचेगा। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान कुछ न कुछ तो समाज में असर डाल ही रहे हैं। सदियों से चले आ रहे ‘तीन तलाक’ के शोषण से मुस्लिम महिलाओं को मुक्ति मिली तो केवल शाहबानो के आवाज उठाने से।