हिमाचल दस्तक : रमेश सिद्धू: संपादकीय : झारखंड विधानसभा चुनाव परिणाम से किसको क्या सबक मिला? भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने मंचों से अकसर कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की बात किया करते थे। साथ ही यह भी कि हम हर राज्य में अपनी सरकारें बनाएंगे। लेकिन, एक साल के दौरान पांच राज्य हाथ से खिसक जाना बताता है कि बीजेपी के लिए सबकुछ ठीक नहीं चल रहा।
हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो विरोधियों के लिए दिल्ली अभी दूर है, लेकिन देश के नक्शे पर नजर आने वाला भगवा रंग धीरे-धीरे सिमटकर काफी कम हो गया है। अब झारखंड के चुनाव परिणामों ने तो इस रंग की चमक काफी फीकी कर दी है। कारण चाहे जो मर्जी बताएं जाएं या वोट प्रतिशतता को लेकर खुद को तसल्ली दी जाए, सच्चाई यही है कि झारखंड में पूरे पांच साल सरकार चलाने वाले पहले मुख्यमंत्री रघुबर दास की सरकार को जनता ने नकार दिया। राज्य में पांच साल के दौरान 24 मॉब लिंचिंग होना, 10 हजार आदिवासियों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा चलाना और सरकार में मंत्री रहे सरयू राय का रघुबर दास के विरोध में खुलकर उतरना इसका सबसे बड़ा कारण बताया जा रहा है।
लेकिन, सोचने वाली बात यह है कि ऐसी स्थिति क्यों आई? हर विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लडऩे की कोशिश करने वाली भाजपा यहां क्षेत्रीय मुद्दे उठाने में क्यों चूक गई। इससे पहले मणिपुर हो, गोवा हो या उत्तराखंड…परिणाम कैसा भी रहा हो, बीजेपी नियम कानून, संविधान के हर पहलू को ताक पर रखकर अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही। महाराष्ट्र में तो जिस तरह आधी रात को सरकार बनाई, उससे पूरे देश में जो संदेश गया सभी जानते हैं और समझते भी हैं। बीजेपी समर्थक शोर मचा रहे हैं कि महागठबंधन समान विचारधारा के दलों का नहीं है।
उनसे कोई पूछे महाराष्ट्र में एनसीपी के साथ सरकार बनाने का ख्वाब क्यों देखा। एनसीपी के साथ तो चुनावपूर्व गठबंधन भी नहीं था। हरियाणा में जजपा और भाजपा चुनाव पूर्व एक दूसरे को जी भर कोस रहे थे। फिर वह गठबंधन कैसा है ? जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ्ती से मिलकर सरकार बनाई थी तो वहां कौन सी विचारधारा मिलती थी? दूसरों से सवाल तब करो जब आप दूध के धुले हों। बेहतर होगा कि झारखंड की हार से सबक लेते हुए आत्ममंथन किया जाए कहां-कहां कमियां हैं। वरना अब दिल्ली भी दूर नहीं है।