- 14 अप्रैल, 1945 को राजा के नियमों का उल्लंघन कर पांगणा के लाहौल मेले में तिरंगा फहराया गया
- 19 फरवरी, 1948 को सत्याग्रहियों ने सुकेत की राजधानी पांगणा को अपने अधिकार में ले लिया
- 25 फरवरी, 1948 को सुकेत की राजधानी और रियासत पर कब्जा किया गया। 26 फरवरी,1948 को सुकेत आजाद हो गया
- 14 मार्च, 1948 को राजा लक्ष्मण सेन ने रियासत के भारत संघ में विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए, सुकेत राजशाही से पूर्ण मुक्त होने वाली प्रदेश की पहली रियासत बनी
- सन् 765 से 1948 तक पांगणा गांव सुकेत राजवंश के 52 शासकों की स्थाई और ग्रीष्मकालीन राजधानी रहा
- राजराजेश्वरी माता का मंदिर 1200 साल पुराना है, जबकि प्रदेश की प्रसिद्ध चैणी कोठी महज 500 साल पुरानी
देवेंद्र गुप्ता : कवर स्टोरी : हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से 109 किलोमीटर की दूरी पर शिकारी देवी पर्वत शृंखला के आंचल में बसे करसोग तहसील के ऐतिहासिक गांव पांगणा का भारत छोड़ो आंदोलन और आजादी के बाद रजवाड़ाशाही के विरोध में अमूल्य योगदान रहा है।
खास बात यह है कि प्रदेश में रजवाड़ाशाही के अंत की शुरुआत इसी गांव से हुई थी। भारत संघ में शामिल होने वाली हिमाचल की पहली रियासत सुकेत के खिलाफ प्रजामंडल आंदोलन यहीं से शुरू हुआ था। खुद ही आंदोलन की कमान संभाले पांगणावासियों का, पहाड़ी रियासतों में से सुकेत रियासत का सबसे पहले भारत संघ में विलय करवा हिमाचल प्रदेश के गठन में अमूल्य योगदान रहा। सुकेत आंदोलन के संचालक डॉ. यशवंत सिंह परमार और सहयोगियों व सुकेत सत्याग्रहियों की क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र रहे पांगणा गांव के हर परिवार के सदस्य ने सुकेत शासकों के खिलाफ सत्याग्रह को औजार बनाया था।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के 5 वर्ष बाद 1862 में सुकेत रियासत की ग्रीष्मकालीन राजधानी पांगणा, करसोग, च्वासी, तत्तापानी क्षेत्र में रजवाड़ाशाही के अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध प्रत्यक्ष विरोध होने लगा। यह विरोध धीर-धीरे बढ़कर उग्र रूप लेता गया। 1878 में राजा रुद्रसेन द्वारा प्रजा पर थोपे गए मनमाने कर के बाद प्रजा में और असंतोष बढ़ा। 1879 में ब्रिटिश सरकार ने राजा रुद्रसेन को सत्ता से हटाकर उनके बेटे को राजा घोषित कर दिया। 14 अप्रैल, 1945 को राजा सुकेत के प्रत्येक नियम का उल्लंघन कर पांगणा के लाहौल मेले में तिरंगा झंडा फहराया गया।
मई 1947 में पांगणा में सत्याग्रहियों की गतिविधियों के खिलाफ और जनता को हतोत्साहित करने के लिए धारा 144 लगाई गई। लाठीचार्ज हुआ। आंदोलनकारी दूसरी रियासतों में भूमिगत हुए। आखिरकार 19 फरवरी, 1948 को सत्याग्रहियों ने सुकेत की राजधानी पांगणा पर अधिकार कर लिया। पांगणा में स्थानीय निवासियों ने लगभग 4000 सत्याग्रहियों के रहने व खाने-पीने का प्रबंध किया। तीन दिन तक सत्याग्रही पांगणा ही रुके। 22 फरवरी, 1948 को तमाम सत्याग्रहियों ने पांगणा से सुंदरनगर की ओर प्रस्थान शुरू किया।
रास्ते में निहरी पुलिस चौकी पर कब्जा कर जयदेवी पहुंचे। 25 फरवरी, 1948 को सुकेत की राजधानी और रियासत पर कब्जा कर लिया गया और 26 फरवरी, 1948 को सुकेत आजाद हो गया। 14 मार्च, 1948 को सुकेत के राजा लक्ष्मण सेन द्वारा रियासत के भारत संघ में विलय पत्र पर हस्ताक्षर करते ही सुकेत राजशाही से पूर्ण मुक्त हो गया। इस प्रकार सुकेत हिमाचल की पहली रियासत बनी जिसका भारत संघ में विलय हुआ। इसके पश्चात एक के बाद एक रियासतों के भारत संघ में विलय के बाद 15 अप्रैल, 1948 को हिमाचल का गठन हुआ।
1200 साल पुराना मंदिर दुर्ग शोधकर्ताओं की दिलचस्पी का केंद्र
पांगणा अपनी बेजोड़ वास्तुकला के लिए भी जाना जाता है। इसके भवन लकड़ी और पत्थरों के सहारे हजारों साल से बिना मिट्टी-गारे के टिके हैं। इन्हीं में से एक इमारत किलानुमा छह मंजिला मंदिर दुर्ग की वास्तुकला देश-विदेश के आॢकटेक्ट्स के लिए अनुसंधान का विषय बनी है।
पांगणा की वास्तुकला सिंगापुर एडेस कॉलेज ऑफ आॢकटेक्चर, चंडीगढ़ कॉलेज ऑफ आॢकटेक्चर व एनआईटी हमीरपुर के शोधकर्ताओं की दिलचस्पी का केंद्र बनी हुई है। महाराष्ट्र के आॢकटेक्ट स्वप्निल व नेहा भोले तो पिछले 20 वर्षों से इस दुर्ग मंदिर के निर्माण पर रिसर्च कर रहे हैं।
प्रदेश में 1905 में आए सबसे बड़ेे भूकंप में जहां मंडी, कुल्लू व कांगड़ा में बेहद नुकसान हुआ था, कई प्राचीन धरोहरें ढह गई थीं। उस भीषण त्रास्दी में भी पांगणा का राजराजेश्वरी छह मंजिला मंदिर दुर्ग टस से मस नहीं हुआ। इसी भूकंपरोधी तकनीक की जांच करने के लिए यहां दुनियाभर के शोधकर्ता आते हैं।
765 एडी में बने मंदिर दुर्ग की उम्र 1200 साल है, जबकि प्रदेश की प्रसिद्ध चैणी कोठी महज 500 साल पुरानी है और कई बार उसका पुनर्जीर्णोद्धार किया जा चुका है। यह मंदिर दुर्ग आज भी बिना मिट्टी-गारे से टिका हुआ है। यह मंदिर दुर्ग में दिलचस्पी ही है कि आज पांगणा में पर्यटक कम और रिसर्चर ज्यादा पहुंचते हैं।
प्राचीन चौकियों का वैभव अब वीरान
पांगणा में आज भी कायम प्राचीन कलात्मक चौकियों का वैभव वीरान पड़ा है। इन चौकीनुमा मकानों की काष्ठकला अद्भुत है। महाराष्ट्र के आर्किटेक्ट्स स्वप्निल शशिकांत भोले और प्रो. नेहा भोले धरोहर भवनों की स्मृति को संजोने के लिए जब भी हिमाचल आते हैं, तो पांगणा जरूर पहुंचते हैं। उनका कहना है कि प्रदेश में काठकुणी तकनीक से बनी ये कोठियां और चौकियां पूरी दुनिया में हिमाचल में ही हैं। भोले दंपति के अनुसार सरकार को इन कोठियों को संरक्षण देना चाहिए।
देवीकोट पांगणा यहां था प्रसव पीड़ा से मुक्ति दिलाने वाला खंडा
सुकेत अधिष्ठात्री राजराजेश्वरी महामाया पांगणा के मंदिर दुर्ग की छठी मंजिल पर 1960 के दशक तक एक चमत्कारी खंडा (तलवार) भी पूज्य था। मान्यता थी कि इसको स्नान करवाने से प्राप्त जल को प्रसूता स्त्रियों को पिलाने से बच्चे के जन्म के समय मां को न तो किसी प्रकार की वेदना होती थी और न ही प्रसव के पेचीदे व नाजुक मामले में कोई समस्या ही आती थी। माना जाता है कि यह खंडा 1270 ईस्वी में राजा मदनसेन को उस स्थान पर प्राप्त हुआ था, जहां स्वप्नावस्था में देवी ने दर्शन देकर शीघ्र ही इस स्थान को छोड़ देने का निर्देश दिया था।
जनश्रुतियों के अनुसार स्वप्न देखने के बाद मदनसेन को महल से बाहर आकर निश्चित स्थान पर स्वप्न में देखी आकृति दिखाई दी। मदन सेन जब इस आकृति के नजदीक पहुंचे तो आकृति अदृश्य हो गई और इस स्थान पर एक खंडा पड़ा मिला।
मदन सेन ने विद्वानों से रात की घटना का वर्णन किया तथा उनके मशविरे से अपने रनिवास को देवी के मंदिर का रूप प्रदान कर भवन की छठी मंजिल में बने गर्भगृह में राजराजेश्वरी के अनूठे सिंहासन के पास इस चमत्कारी खंडे को भी स्थापित कर दिया। 1960-61 में कोई साधु इस खंडे को चुराकर ले गया। प्रसव पीड़ा की अनुभूति को समाप्त करने वाले इस चमत्कारी खंडे के जल का सेवन करने का दावा करने वाली महिलाएं आज भी पांगणा में मौजूद हैं।
फींहूं को फांसी की सजा मिली थी पांगणा बेहड़े में
राजशाहियों के जुल्मों की दास्तां आज भी लोकगीतों, दंत कथाओं, लोकोक्तियों और इतिहास में छिपी पड़ी है। नाटी गीत व नृत्य के दौरान किए जाने वाले अल्प विश्राम के दौरान गाई जाने वाली ‘नैणी’ में सुकेत में राजसी अत्याचार के विरुद्ध डटकर संघर्ष करने वाले फींहूं नामक व्यक्ति को फांसी की सजा का वर्णन कुछ यूं मिलता है…पांगणे बेहड़े दे फींहूं लगीरा फांही, बेटड़ी धीजो लंभी, झंबिये भेड़ धीजो कसाई। धर्म और देश की रक्षा के लिए फींहूं की तरह अनेक अनाम वीरों का बलिदान पांगणा के मस्तक को हिमालय से भी ऊंचा किए हुए है।
डॉ. हेमेंद्र बाली और डॉ. जगदीश इन्होंने संजोया इतिहास
पांगणा के इतिहास को संजोने में दो लोगों की अहम भूमिका रही है। इनमें एक हैं 20 दिसंबर, 1967 को शिमला जिले की कुमारसेन तहसील के चेकुल गांव में जन्मे डॉ. हेमेंद्र बाली हिम। साहित्य, लेखन और प्राचीन इतिहास को लेकर काफी सजग रहे डॉ. हेमेंद्र ने पांगणा के इतिहास को ‘सुकेत संग्राहिका’ के रूप में सृजित किया है। ये आजकल नारकंडा स्कूल में बतौर प्रधानाचार्य कार्यरत हैं। दूसरे हैं डॉ. जगदीश शर्मा।
पेशे से आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉ. शर्मा पांगणा के ही मूल निवासी हैं। इन्होंने डॉ. हेमेंद्र के साथ मिलकर पांगणा जैसी प्राचीन धरोहरोंं को बचाने के लिए जागरुकता अभियान छेड़ रखा है। दोनों की मेहनत व लगन ही थी जिससे पांगणा के इतिहास को नई पहचान मिली है। डॉ. जगदीश शर्मा पुरातत्व चेतना संघ मंडी से स्व. चंद्रमणि कश्यप चंद महात्मा पुरातत्व चेतना सम्मान पाने वाले प्रथम व्यक्ति हैं।
सतीप्रथा का प्रतीक सारडा गांव
सत्रहवीं शताब्दी में भारत में अनेक कुप्रथाओं के जरिये खुलेआम नारी शोषण होता था। राजाओं-महाराजाओं के मरने पर उनकी रानियां और दासियां सतीप्रथा के नाम पर बलपूर्वक जिंदा जला दी जाती थीं। सती होने की यह जघन्य और शर्मनाक घटनाएं जिस स्थान पर घटीं, ये स्थल आज ‘सूरल’ कहलाते हैं। पांगणा की नई पीढ़ी के बहुत कम युवा जानते होंगे कि ऐसा ही सती प्रथा से जुड़ा स्थान राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला पांगणा और देहरी के मध्य स्थित है।
जहां से एक पैदल चलने योग्य रास्ता मोक्षधाम डेहोडा श्मशानघाट से जुड़ता है। यही तिराहा सारडा नाम से प्रसिद्ध रहा है। मान्यता है कि सती होने के लिए विवश की जाने वाली स्त्रियां अपने आभूषण और शृंगार सामग्री इस स्थान पर फेंक देती थीं। उस जमाने में चोरी-चकारी भी नहीं होती थी। गांव वाले भी आते-जाते एक छोटा-बड़ा पत्थर इस स्थान पर फेंक देते ताकि सती के आभूषण पत्थर के विशाल ढेर के नीचे दब जाएं।
पांडवों के नाम पर नामकरण पांडवांगण
गांव का नामकरण पांडवों के नाम पर हुआ बताया जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार वनवास के समय घूमते हुए पांडव यहां आए। पांडवों ने इस गांव में कुछ समय गुजारा जिसके चलते गांव का नाम पांडवांगण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पांगणा का नामकरण पांडवों की क्रीड़ास्थली पांडवांगण का अपभ्रंश माना जाता है, जो भाषाई आधार पर उपयुक्त प्रतीत होता है। इस गांव के मध्य स्थित ऊंची टेकरी पर आज भी सुकेत के सेन वंशज की अंतिम कलात्मक विरासत के रूप में सुकेत अधिष्ठात्री राजराजेश्वरी मूल महामाया पांगणा का छह मंजिला कलात्मक भवन अपने समृद्ध इतिहास की गौरवगाथा सुना रहा है।
हिस्ट्री ऑफ पंजाब हिल स्टेट्स, सुकेत गजेटियर और पॉलिटिकल एंड सोशियो कल्चरल हिस्ट्री ऑफ सुकेत, मंडी के शोधार्थी डॉ. हेमेंद्र बाली के अनुसार सन् 765 से 1948 तक पांगणा गांव सुकेत राजवंश के 52 शासकों की स्थाई और ग्रीष्मकालीन राजधानी रहा। राजा वीरसेन ने सुकेत रियासत की स्थापना की थी। पांगणा के मध्य एक लघु टेकरी पर 825 फुट के घेरे में तीन चरणों में 20 से 60 फुट ऊंची पत्थर और देवदार के शहतीरों की विशाल प्राचीरें खड़ी कर तीन से छहमंजिला छह भवन और दो-दो मंजिला चौकीनुमा घर बनाकर इसे अभेद्य किले और महल का रूप प्रदान किया गया।
नरमेध यज्ञ ‘भूंडा’ का साक्षी
आज का स्कूल बाजार, तब का चांढा
ऐतिहासिक नगरी का आज का स्कूल बाजार कभी चांढा के नाम से मशहूर था। चांढा यानी चंडी का स्थान। स्कूल परिसर में दक्षिण दिशा में बने तीन मंजिले भवन के पृष्ठ भाग में स्थित ‘चेपटी जान’ को ही चंडी का स्थान कहा जाता है। बताया जाता है कि राजसी काल में 12 वर्ष की अवधि में हर चौथे वर्ष शांद, भड़ोजी आदि यज्ञों के बाद नरमेध यज्ञ ‘भूंडा’ मनाया जाता था। ‘भूंडा’ में बलौतर यानी मूंज घास से बने रस्से का एक सिरा माहुंनाग के देओरे के आंगन में तथा दूसरा सिरा चेपटी जान के पास बांधा जाता था।
इस बलौतर को बांधने से पूर्व लकड़ी की घोड़ी के छेदों मे रस्से का एक सिरा पिरोया जाता था। इसी घोड़ी पर बैठाकर ‘बेड़े’ को एक सिरे से दूसरे सिरे तक सरकाया जाता था। नरमेध यज्ञ में यदि बेड़ा बच जाता तो उसका खूब स्वागत किया जाता। यह यज्ञ कोई साधारण यज्ञ नहीं था। राजाश्रय में होने वाले इस यज्ञ में क्षेत्र के देवी-देवताओं के रथ भी शामिल होते थे। इस यज्ञ को कर लेने वाला राजा विश्वजयी माना जाता था। मान्यता है कि आखिरी बार करीब पांच सौ वर्ष पूर्व यहां इस यज्ञ का आयोजन हुआ था।
भगवान शिव अंबरनाथ : यहां हुआ था भीम और हिडिम्बा का विवाह
पांगणा महाभारत काल से पौराणिक व ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा है। इस बात की पुष्टि यहां के जनमानस में प्रचलित जनश्रुतियों एवं लोकमान्यताओं से होती है। देवी सुकेत अधिष्ठात्री राजराजेश्वरी के मंदिर के प्रवेश द्वार पर कस्बे के मध्य में भगवान शिव अंबरनाथ का प्राचीन मंदिर स्थित है। हालांकि मंदिर का मौलिक स्वरूप दशकों पूर्व आग की भेंट चढ़ गया था, फिर भी इस मंदिर से जुड़ा प्राचीन आख्यान इसके गौरव को प्रतिबिंबित करता है। मान्यता है कि इसी शिवालय में पांडु पुत्र भीम का राक्षस कुल्लोत्पन हिडिंबा से विवाह संपन्न हुआ था।
कहा जाता है कि हिडिंबा के भाई हिडिंब राक्षस का राज्य चंबा, लाहुल से लेकर गढ़वाल तक हिमालय की तराई में था। भागवत पुराण के अनुसार हिडिंब राक्षस की राजधानी हिमालय की तराई में किसी ऐसी जगह थी जहां साल के घने जंगल थे। प्राचीन काल में संभवत: मंडी, सुकेत और बुशहर का काफी भाग वर्तमान कुल्लू जिले में सम्मिलित था।
ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार व अध्ययन से यह पता चलता है कि जब खशों और आर्यों ने हिमालय के पश्चिमी क्षेत्र के इस भू-भाग में आक्रमण किए तो यहां औदुंबर, त्रिगर्त, कुल्लू और कुलिंद जैसे गणराज्य थे। पांडव जब माता कुंती के साथ लाक्षागृह में जलने से सुरक्षित बचकर निकले तो वह हिडिंब राक्षस के प्रदेश में विचरण करते रहे। इसी बीच भीम हिडिंबा के मध्य प्रणय बीज दोनों के विवाह में परिणत हुआ। पांगणा के शिवालय में आशुतोष भगवान को साक्षी मानकर भीम-हिडिंबा परिणय सूत्र में बंधे।