हिमाचल दस्तक : रमेश सिद्धू : संपादकीय : बाजार में सब्जी विक्रेताओं से प्याज के दाम पूछिये, वो किलो के नहीं 250 ग्राम के दाम बताएंगे। कारण, एक किलो प्याज के दाम सुनकर ग्राहक हिल जाता है। खाने से प्याज का स्वाद गायब है तो किसी ढाबे पर सलाद में प्याज मांगना मानो गुनाह हो गया है। क्या आम क्या खास, प्याज की कीमतों से हरकोई त्रस्त है।
लेकिन, हैरानी की बात ये है कि सब्जियों के दाम आसमान पर पहुंचने के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट मीडिया, इसे लेकर जितनी चर्चा होनी चाहिए वो नहीं हो रही है। यहां तक कि राजनीतिक दल या आम जनता के लिए भी मानो ये कोई मुद्दा ही नहीं है। करीब सात-आठ साल पीछे जाएं तो पता चलता है प्याज के दाम किस तरह राजनीतिक तूफान लाते रहे हैं और किसी न किसी नेता की कुर्सी हिली है। यूपीए के दौर में तो आलम ये था कि प्याज के दाम 50 रुपये पहुंच जाते थे तो तमाम मीडिया कैमरे लेकर मंडियों के चक्कर काटने लगता था, प्रिंट मीडिया में गृहणियों की भड़ास निकलती थी, महंगाई के खिलाफ सड़क से संसद तक मार्च निकाले जाते थे।
आज प्याज की कीमतों से पूरा देश त्राहिमाम कर रहा है, लेकिन सब खामोश हैं। इससे पहले भी प्याज बड़े-बड़े नेताओं की कुर्सी हिलने और कई सरकारों की विदाई की वजह बना। आपातकाल के बुरे दौर के बाद जनता पार्टी की सरकार आई तो इंदिरा गांधी के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं था। अचानक प्याज की कीमतें बढऩे लगी तो इंदिरा गांधी को बैठे-बैठाए एक बढ़ा मुद्दा मिल गया। 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए तो प्याज इतना बढ़ा मुद्दा बनकर उभरा कि अमेरिका के अखबार वॉशिंगटन पोस्ट ने भी इस पर खबर लिखी। हेडलाइन थी ‘गांधी विन ब्रिंग्स ड्रॉप इन ऑनियन प्राइस’ यानी गांधी की जीत से प्याज की कीमतों में गिरावट।
इंदिरा गांधी प्याज की बढ़ती कीमतों को नियंत्रित करने के वादे के साथ चुनाव जीत गईं। इसके बाद 1998 का दौर याद कीजिए। नए-नए शुरू हुए एक चैनल ने दिल्ली में प्याज के दाम बढऩे पर खबर चलाई। मामला यूं उछला कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना को इस्तीफा देना पड़ा। उनकी जगह लाए गए साहिब सिंह वर्मा भी कीमतें नियंत्रित करने में नाकाम रहे तो फायर ब्रांड नेता सुषमा स्वराज को सत्ता सौंपी गई।
लेकिन लगातार बढ़ते प्याज के दामों ने उन्हें भी खूब रुलाया और आखिरकार बीजेपी को चुनाव हारकर सत्ता से बाहर होना पड़ा। अब पिछले करीब चार महीनों से प्याज की कीमतों में उछाल का मौसम चल रहा है। फर्क है तो सिर्फ इतना कि सामने कोई बड़ा चुनाव नहीं है (झारखंड को छोड़कर)। इसलिए तमाम राजनीतिक दलों ने चुप्पी साध रखी है और मीडिया फिलहाल महंगाई से ज्यादा उन मुद्दों का हवा दे रहा है जिसका आमजन से कोई सरोकार नहीं।