हिमाचल दस्तक : विजय कुमार : संपादकीय :
भारतीय न्यायपालिका की जटिलताओं से पैदा हुई तारीख पर तारीख की प्रवृत्ति न्याय की अवधारणा के विरुद्ध है। इसी खामी का लाभ उठाकर दोषी कानून के साथ आंख-मिचौनी करते रहते हैं। वहीं कई पीडि़त व्यक्ति लंबे समय तक न्याय के लिए इंतजार नहीं कर पाते हैं। कई बार देरी से मिलने वाले न्याय के लिए वादियों का सब्र जवाब दे जाता है तो कई बार उम्र।
न्याय में होने वाली देरी दोषियों और वकीलों के लिए तो किसी अवसर से कम नहीं होती है, मगर पीडि़तों के लिए यह किसी सजा से कम नहीं है। कई बार दोषी के मरने के बाद मामले बंद कर दिए जाते हैं। देरी से मिलने वाले इस न्याय के क्या मायने हैं? न्यायपालिका को इस पर मंथन करना चाहिए। देश को हिलाकर रख देने वाले निर्भया मामले में न्यायपालिका और कार्यपालिका में नया जीवट देखने को मिला था। न्यायपालिका ने खासा उत्साह दिखाया था। इस तरह के कई मामले जल्दी निपटने लगे थे। निर्भया मामले में भी ट्रायल और सजा सुनाने की प्रक्रिया में काफी तेजी लाई गई थी।
मगर अब यह मामला जरूरत से ज्यादा खिंचता जा रहा है। दोषियों के दो बार डेथ वारंट जारी किए गए, फिर रद हो गए। इस कानूनी धींगामुश्ती के कारण दोषियों को फांसी नहीं हो पाई है। दोषी और उनके वकील सजा के अमल को आगे सरकाने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। हर तरह के कानूनी विकल्पों का प्रयोग किया जा रहा है।
एक गुनाह के लिए एक साथ सजा देने की कानूनी खामी को भी भुनाया जा रहा है। यही वजह है कि दोषी विकल्पों का अलग-अलग प्रयोग कर रहे हैं, ताकि वे तारीख पर तारीख लेते रहे हैं। वे ऐसा करने में कामयाब भी हो रहे हैं। समय आ गया है कि इस प्रवृत्ति पर तुरंत रोक लगे।