हिमाचल दस्तक : रमेश सिद्धू : संपादकीय : यह किस्सा है जिला शिमला की एक पंचायत का। हिमऊर्जा से सभी पंचायतों के लिए दस-दस सोलर लाइटें मंजूर होती हैं। इस संबंध में 2500 रुपये प्रति सोलर लाइट मूल्य के हिसाब से पैसे जमा कराने को पत्र व्यवहार भी होता है। पंचायत प्रधान पहले तो सोलर लाइटों की संख्या बढ़वाने की कोशिश करते हैं।
लेकिन, योजना तो प्रति पंचायत दस लाइटें ही देने की थी, सो संबंधित विभाग अधिक लाइटें देने से इनकार कर देता है। यहीं से समस्या की शुरुआत होती है। प्रधान का धर्मसंकट ये कि सिर्फ दस लोगों को लाइटें देकर, जिन्हें नहीं मिली उनकी नाराजगी मोल लेनी पड़ेगी। इसलिए बेहतर समझा गया कि लाइटें मंगवाई ही न जाएं। नतीजा, 10 घरों में भी सोलर लाइटें नहीं लग पाईं और योजना लैप्स हुई वो अलग से। हाल ही में सरकार के स्थानीय ऑडिट विभाग ने वर्ष 2015 से 2018 की रिपोर्ट जारी की तो खुलासा हुआ कि सूबे की पंचायतों ने सरकारी अनुदान के तहत मिले करोड़ों रुपये लैप्स कर दिए।
गांवों का कायाकल्प करने के लिए ही लोकतांत्रिक ढांचे के सबसे छोटे निकाय ग्राम पंचायतों का गठन किया गया है जिससे सरकार की ओर से आरंभ की गई विभिन्न योजनाओं का लाभ आखिरी व्यक्ति तक पहुंच सके। इसे ही नाम दिया गया था-अंत्योदय। गांवों का कायाकल्प करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें हर साल एक-एक पंचायत को लाखों-करोड़ों रुपये जारी करती हैं। इन पैसों से वहां शौचालय, नाली, पानी, साफ-सफाई, पक्के रास्ते जैसे निर्माण होने चाहिए। आपके घर का पानी सड़क पर न बहे ये भी पंचायत का काम है। लेकिन ज्यादातर लोग इस बारे में जानते नहीं हैं, और जो जानते हैं वो प्रधानों से छोटे-छोटे निजी फायदे लेकर अपनी जुबान सी लेते हैं।
कितने गांवों में पशुओं के पीने के पानी की व्यवस्था पंचायत की ओर से की गई है? पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए कितनी पंचायतें प्रयास करती हैं? कितनी पंचायतें गांवों में फॉगिंग या अन्य दवाओं का छिड़काव कराती हैं? कितनी पंचायतें श्मशानघाट का रखरखाव करती हैं? प्रदेश की किसी भी पंचायत में चले जाएं, शायद ही कहीं पशुओं के लिए चारागाह की व्यवस्था देखने को मिले। और भी ऐसी बहुत सी योजनाएं होती हैं जिनके बारे में न तो प्रधान ग्रामीणों को बताते हैं और न ही लोगों को उनके बारे में पता चलता है।
जानकारी के मुताबिक बढ़ते शहरीकरण के बावजूद 2011 की जनगणना के अनुसार हिमाचल में करीब 62 लाख लोग गांव में रहते हैं और 3243 पंचायतें हैं। करीब एक साल पहले जारी आंकड़ों के अनुसार 14वें वित्तायोग का ही करीब 500 करोड़ रुपये का बजट पिछले 4-5 वर्षों के दौरान पंचायतों के पास पेंडिंग पड़ा था। सांसद व विधायक निधि से आने वाला बजट अलग होता है। जाहिर है, ये पैसा या तो लैप्स हो जाता है या फिर इसका परनाला किसी खास ओर बहता है।
ऊपर बताई कहानी सिर्फ एक उदाहरण है जो बयान कर देती है कि पंचायतों को मिली ज्यादातर धनराशि क्यों और कैसे लैप्स हो जाती है। सरकार को चाहिए कि पंचायतों के कार्यों का सही ढंग से नियमित ऑडिट किया जाए। इसके अलावा सोशल ऑडिट भी एक बेहतर विकल्प साबित हो सकता है। तभी सरकारी धन का सदुपयोग होगा और इसका लाभ भी लाइन में खड़े अंतिम व्यक्ति तक पहुंच सकेगा।