हिमाचल दस्तक : विजय कुमार : संपादकीय :
गरीबों में बंटने वाले लंगर को लेकर टीएमसी प्रशासन की दुविधा समझ से परे है। दरअसल छह महीने पहले अस्पताल परिसर में गरीब लोगों के लिए लंगर लगाने की इजाजत टीएमसी प्रशासन ने कांगड़ा के कुछ बुद्धिजीवी लोगों को दी। उस दौरान उनके इस कार्य की तारीफ भी की गई। प्रशासन से मिली तारीफ ने इन लोगों का हौसला और बढ़ा दिया। बाकायदा एक ट्रस्ट का गठन हो गया।
इस तरह कारवां इस भलाई के काम में जुड़ता गया। प्रशासन के ही कहने पर तमाम तरह की औपचारिकताएं पूरी की गईं। नेक नीयत से चल रहा यह काम आगे बढ़ता गया। अस्पताल में आने वाले लोगों को मुफ्त में बढिय़ा खाना मिलने लगा। लंगर गरीबों में मशहूर होने लगा। खाना खाने वालों की संख्या 700 तक पहुंच गई। गरीबों की दुआओं ने ट्रस्ट सदस्यों के इरादों को फौलाद बनाने का काम किया। सप्ताह में एक दिन के लंगर से शुरू हुआ सफर दैनिक बनने वाला ही था कि प्रशासन ने इसे बंद करने के फरमान सुना दिए।
जब इस बारे में बात की गई तो कहा गया कि गलती से मंजूरी दी थी। यानी अब प्रशासन ‘भूल सुधारने’ में लग गया। बड़ा सवाल यह है कि प्रशासन छह महीने पहले गलत था या अब? तमाम स्वास्थ्य मानकों को पूरा करते लंगर को रोकने का फरमान जारी करते हुए प्रशासन ने एक पल के लिए यह नहीं सोचा कि गरीब और उनसे दुआएं लेने वालों का कोई कसूर नहीं है।
बात अस्पताल में लंगर लगाने वाली अकेली संस्था की होती तो भी इतने सवाल खड़े नहीं होते। यहां एक संस्था नाश्ते का लंगर बांटती है, वो यथावत जारी है। तो शाम का भोजन प्रशासन को भारी क्यों लगा? क्या भूखे पेट नींद ठीक आती है गरीबों को? टीएमसी प्रशासन को अपने इस फैसले पर फिर से विचार करना चाहिए। यह न्यायपूर्ण कतई नहीं लगता है। अस्पताल दुख हरने के लिए ही होते हैं।