- 1998-99 में सरकार ने कंपनी को सौंपा था ऊहल प्रोजेक्ट
- बाद में वापस लेकर ब्यास वैली कॉर्पोरेशन को सौंप दिया था
शकील कुरैशी : शिमला
ऊहल परियोजना सरकार और बिजली बोर्ड के गले की फांस बन गई है। इस प्रोजेक्ट की एवज में एक निजी कंपनी के 175 करोड़ रुपये दोनों के गले पड़ गए हैं। अब कानूनविदें का सहारा इसमें लिया गया है ताकि कुछ न कुछ राहत मिल जाए। बताया जाता है कि सुप्रीम कोर्ट से एक निजी कंपनी के पक्ष में ऐसा निर्णय आया है जिसमें सरकार और बिजली बोर्ड फंसकर रह गए हैं। सूत्रों के अनुसार वर्ष 1998-99 में सरकार ने ऊहल परियोजना जो अब बिजली बोर्ड के ब्यास वैली कार्पाेरेशन के पास है एक निजी कंपनी को सौंपी थी।
शुरूआत में जिस कंपनी को यह प्रोजेक्ट दिया गया उसपर यह आपत्ति बाद में लगाई गई कि वह तय समय पर प्रोजेक्ट का निर्माण नहीं कर पाई। ऐसे में सरकार ने बिजली बोर्ड को यह प्रोजेक्ट सौंप दिया जोकि 100 मैगावाट का है और तब से लेकर आज तक नहीं बन पाया है। बिजली बोर्ड ने इसपर ब्यास वैली कार्पाेरेशन का निर्माण किया और उसे प्रोजेक्ट दे दिया मगर 2004 में ब्यास वैली कार्पाेरेशन को मिले इस प्रोजेक्ट को अब तक पूरा नहीं किया जा सका है।
इस पर करोड़ों रुपये का खर्चा हो गया और जब इसे चालू करने की बात आई तो इसका पेनस्टॉक फट गया। अब इसकी सालिमा प्लेट को बदला जा रहा है और परियोजना अगले साल तक ही पूरी तरह से तैयार हो सकेगी। सरकार के लिए यह परियोजना सफेद हाथी से ज्यादा कुछ नहीं है।
बड़ा मसला यह है कि निजी कंपनी ने सरकार के खिलाफ हाई कोर्ट में केस किया जहां से सरकार को आदेश हुए कि इस कंपनी का जो पैसा लगा है उसे सरकार वापस करे। इसके बाद भी सरकार नहीं मानी तो मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया और अब सुप्रीम कोर्ट से आदेश हुए हैं कि निजी कंपनी की मूल राशि के साथ ब्याज की राशि जोकि कई सालों की बनेगी वो भी दी जाए।
ऐसे में निजी कंपनी का दावा है कि ब्याज के साथ उसे 175 करोड़ रुपये की राशि चुकता की जाए। अब सरकार और बिजली बोर्ड इस मामले में फंस गए हैं। सरकारी सूत्रों का कहना है कि यदि ब्याज राशि भी देनी हो तो कम से कम 40 करोड़ रुपये तक बनेंगे। इसपर बिजली बोर्ड ने कानूनविदें से राय मांगी है और ओपिनियन लेने के बाद वह आगे फैसला लेगा।
जोगिंद्रनगर में स्थित है ऊहल परियोजना
ऊहल परियोजना जोगिंद्रनगर में स्थित है जिसे लेकर हर साल महालेखाकार की रिपोर्ट में टिप्पणी होती है। सरकार दो साल से बजट भाषण में उल्लेख करती रही है कि इस प्रोजेक्ट को उत्पादन में लाया जाएगा मगर अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। अभी भी इसमें एक साल का समय लगेगा। इस प्रोजेक्ट की जितनी लागत है उससे कहीं ज्यादा इसके लिए लोन पर ब्याज हो गया है जिसे चुकता करने में बिजली बोर्ड की सांसेें अटकती रहती हंै। अब गले की फांस बने नए मामले में सरकार क्या करेगी यह देखना होगा।
अब बीच का रास्ता ढूंढने की कोशिश
सवाल यहां ये भी खड़ा हो गया है कि जब निजी कंपनी को प्रोजेक्ट सरकार ने दिया और सरकार ने ही उससे वापस लेकर ब्यास वैली को दे दिया तो अब निजी कंपनी को पैसा बिजली बोर्ड क्यों दे जबकि यह जो भी राशि हो वह सरकार को चुकानी होगी, मगर ऐसा नहीं है। सूत्रों की मानें तो बिजली बोर्ड के अधिकारी इस मामले को लेकर परेशान हैं और लगातार इसपर चर्चा कर रहे हैं कि आखिर इतना पैसा कैसे दिया जाएगा। यदि वाकई में 175 करोड़ रुपये चुकता करने पड़े तो वह कैसे दिए जाएंगे। अभी निजी कंपनी के साथ भी इस मामले को लेकर बातचीत की जा रही है और कोई बीच का रास्ता ढूंढऩे की कोशिश हो रही है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है।