उदयबीर पठानिया : यादें जिंदा रहेंगी
सुजान सिंह पठानिया चले गए,पर अपने पीछे ऐसी यादें छोड़ गए हैं जो कभी नहीं मरेंगी। यह सियासत के सुजान भी थे और सिंह भी। सुजान यानी, स्वभाव और भाव दोनों सच्चे-पक्के। यह पहले ऐसे सियासतदां रहे, जिन्होंने सियासत में कभी कोई विवाद नहीं किया। चेहरा,मूंछे सब सिंह की तरह ता-उम्र रहीं। शेर की ही तरह जिंदगी को जिया। जब भी कोई सियासी आपदा या जनता से संवाद का मौका आता तो जो दिल मे होता था, वही कहते थे। दिमाग को कभी दिल के पास फटकने नहीं दिया। दुनिया दिमाग से सियासत करती है, पर सुजान ने दिल से इसे अंजाम दिया। कुल 11 चुनाव लड़े, इनमें 4 हारे और लास्ट में 2009 के उपचुनाव से लेकर 2017 तक जीत की हैट्रिक जड़ी।
खैर, सुजान इतने जिंदादिल इंसान रहे कि वह कभी भी लकीर के फ़क़ीर नहीं बने। इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि सियासत में भी उन्होंने वो लाइन कभी नहीं पकड़ी, जिस पर सियासत घूमती-चलती है। अपने हमउम्र बुजुर्गों से यारी रखी। यही वजह थी कि जब शुक्रवार को उन्होंने देह त्यागी तो उनके बुजुर्ग दोस्तों की भीड़ दहाड़े मार कर रोती दिखाई और सुनाई दी। यारों का यार दुनिया छोड़ कर गया तो उनके घर पर उनके बुजुर्ग दोस्तों की भीड़ उमड़ आई।
सुजान सिंह पठानिया के कितने आत्मीय रिश्ते रहे होंगे कि आज के डिजाइनर नेताओं की तरह वह कभी नजर नहीं आए। बाल तक ऐसे खोखे में कटवाते थे, जहां आम आदमी कटवाता है। सियासी तामझाम से कोसों दूर रहे। किसी भी सियासी या सामाजिक कार्यक्रम में जाना होता था तो घर से अकेले निकलना। कोई लाव लश्कर नहीं। रास्ते मे जो कोई भी मिलना वही गाड़ी में बिठाना और आगे बढ़ जाना। कोई खास उनके संग नहीं होता था। जो रास्ते में आम मिलता, वही उनका खास हो जाता था।
यह पहले और आखिरी ऐसे नेता होंगे जो यह कहते थे कि, ‘ मेकी ते चूठ नी बलोंदा मडय़ो…’ यानी मेरे से झूठ नहीं बोला जाता। हर बात बिना लाग लपेट से कहने की आदत ऐसी थी कि जनता यह कहने पर मजबूर थी कि सिर्फ सुजान ही ऐसे है जो सीधी बात करते थे। न कभी कोई फिक्र किया न ही कभी किसी रंजो-गम का जिक्र किया।
मरते मर जाओ, पर बदली नहीं करूंगा…
सुजान जी के बाद शायद हिमाचल की सियासत में ऐसा कोई नेता नहीं मिलेगा जो पार्टी लाइन की बजाए सोशल और इमोशनल लाइन पर काम करता नजर आए। उनके विधानसभा क्षेत्र में कभी भी कोई भाजपाई विचारधारा का व्यक्ति उन्होंने ट्रांसफर का शिकार नहीं बनाया। इस वजह से कई बार कांग्रेसी विचारधारा के लोग खफा भी रहते थे। वह भले ही सिरमौर या भरमौर कहीं भी लगे हों,उनकी वापसी तब हो पाती थी जब कोई पोस्ट वेकेंट होती थी। किसी को डिस्टर्ब करने का कोई किस्सा उनकी सियासी कहानी में नजर नहीं आता।
मैं तो भूल ही गया था कि राजाओं के…
एक बार किसी सिलसिले में पठानिया साहब को अदालत से सम्मन आए। सीधे वीरभद्र सिंह के पास पहुंच गए। बोले, देखिए,यह सम्मन आए हैं। क्या करना इनका ? वीरभद्र सिंह ने जवाब दिया कि पठानिया जी,यह कोर्ट है। यहां मैं कुछ नहीं कर सकता। आपको पेश होना होगा। यह सुनते ही पठानिया ने पलटवार करते हुए कहा कि राजा साहब,मैं तो भूल ही गया था कि इंदिरा जी ने राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स खत्म कर दिए हैं। फिर जोर से ठहाका लगाते हुए कहा कि जनाब मैं तो यह बताने आया था कि दिल्ली जाना है।
जितना किराया खर्चा उतने में तो…
एक बार शिमला में उनके विधानसभा क्षेत्र की कुछ पंचायतों के लोगों का प्रतिनिधि मंडल एक ग्रामीण सड़क की रिपेयर को लेकर पहुंचा। चायपान के बाद समस्या बताई तो पठानिया ने उनको चिकोटी काटते हुए कहा कि मुओ, इतना सफर किया,किराया खर्चा। बेहतर होता कि एक-एक तसला रेत-बजरी सीमेंट का खुद ही डाल देते तो सड़क सुधर जानी थी। फिर शिकवा करते हुए कहा कि
आप लोग मुझे घर मे ही बता देते। आने की कोई जरूरत ही नहीं थी।