हिमाचल दस्तक : विजय कुमार : संपादकीय: लावारिस पशुओं और जंगली जानवरों को मारने से समस्या हल होने वाली नहीं है। प्रदेश में इस समय लावारिस पशुओं और जंगली जानवरों का काफी आतंक है। ये अकसर लोगों पर हमले और फसलों को उजाड़ते रहते हैं। लोगों के लिए ये किसी खतरे से कम नहीं हैं।
जहां इनके झुंड सड़कों पर हादसों को न्यौता देते हैं, वहीं लोग घरों और बाजारों में भी इनके हमलों से सुरक्षित नहीं हैं। इनके कारण किसान खेती करना छोड़ रहे हैं और आम लोग असुरक्षा के माहौल में जी रहे हैं। ताजा मामला एक भालू का है। इसके आतंक से लोग इतने तंग हो चुके थे कि बार-बार यह मसला जनमंच में उठा। मगर सरकार लोगों को इस समस्या से निजात नहीं दिला पाई। हां, इसे मारने की अनुमति जरूर दे दी गई। लोगों ने खुद इस जंगली जानवर को मारा। इसमें काफी खतरा था, मगर लोगों ने यह काम किया। आखिर मरते क्या न करते। अहम सवाल यह है कि जानवरों को मारना कहां तक ठीक है।
प्रदेश में इस बड़ी समस्या को हल करने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, वे बेतुके ही लगते हैं। मसलन, जंगली जानवरों को मारने की इजाजत देना, उनकी नसबंदी आदि के प्रयास किए जा रहे हैं। लावारिस पशुओं की समस्या के हल के लिए हाईकोर्ट के आदेशों की अनुपालना के लिए गौशालाओं के निर्माण की बात कही जा रही है, लेकिन बजट का कोई खास प्रावधान नहीं किया जा रहा है। ऐसे में यह प्रयास औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं है। पशु लावारिस कैसे हो रहे हैं, इस पर ज्यादा ध्यान नहीं है।
इन्हें लावारिस न छोडऩे दिया जाए, यह भी नहीं सोचा जा रहा है। यदि पशुओं को लावारिस ही न छोडऩे दिया जाए तो फिर गौशालाओं की क्या जरूरत है। इसी तरह जंगली जानवरों को जंगलों में ही रोकने के प्रयास किए जा सकते हैं। कुल मिलाकर इस समस्या की जड़ को पकडऩा पड़ेगा। सांप निकलने के बाद लकीर पीटने से कुछ हासिल नहीं होगा।