सोनिया साहनी : एडवोकेट, सोलन : भारतीय दंड संहिता के अनुसार बलात्कार, अपहरण अथवा बहला-फुसला कर भगा ले जाना, शारीरिक या मानसिक शोषण, दहेज के लिए मार डालना, पत्नी से मारपीट, यौन उत्पीडऩ आदि को गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा गया है। हिंसा से तात्पर्य है किसी को भी शारीरिक या मानसिक रूप से हानि या चोट पहुंचाना।
किसी को मौखिक रूप से अपशब्द कहकर मानसिक कष्ट देना भी अपराध की श्रेणी में आता है। बलात्कार, हत्या अपहरण जैसी शारीरिक हिंसा हो या दहेज के लिए तंग करना, पत्नी से बदसलूकी या मारपीट जैसी घरेलू हिंसा या छेड़छाड़, पत्नी को भ्रूण हत्या के लिए मजबूर करना, विधवा महिला का मानसिक और सामाजिक रूप से बहिष्कार करना जैसी सामाजिक हिंसा हो, ये सभी घटनाएं महिलाओं और समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित कर रही हैं। बर्बर सामूहिक बलात्कार, तेजाब फेंकने जैसी घटनाओं से हर रोज महिलाओं को दो-चार होना पड़ता है।
राजधानी दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 को हुए निर्भया गैंगरेप ने हिंसा की सारी सीमाओं को लांघ दिया था। 23 साल की युवती से हुए सामूहिक बलात्कार ने पूरे देश को झकझोर दिया था। बड़ी संख्या में जनता बदलाव की मांग करते हुए सड़कों पर उतर आई थी। परिणाम स्वरूप भारत सरकार 2015 में ‘जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन)’ बिल लाई।
इसका मुख्य उद्देश्य 2000 के इंडियन जुवेनाइल लॉ को बदलना था क्योंकि इसी के कारण निर्भया केस में नाबालिग आरोपी को सख्त सजा नहीं हो पाई थी। इसके अतिरिक्त महिला सरंक्षण अधिनियम 2005 को भारत की संसद द्वारा पारित किया गया, जिसका उद्देश्य घरेलू हिंसा से महिलाओं को बचाना है। यह अधिनियम 26 अक्तूबर 2006 को लागू हुआ।
एक अधिवक्ता होने के नाते रोज ऐसी घटनाएं अदालत में देखने को मिलती हैं, जिनमेें महिलाएं या तो दहेज के लिए या कभी बेटी पैदा करने के लिए उनके ही परिजनों द्वारा प्रताडि़त की जाती हैं। आए दिन ऐसी घटनाएं भी सामने आती हैं जहां परिवार के अपने ही सगे संबंधियों द्वारा महिला का यौन शोषण तथा उत्पीडऩ किया जाता है। मासूम बच्चियों को बलात्कार का शिकार बनाया जाता है, फिर चाहे वो 6 माह की हो या 10 साल की। एक सर्वेक्षण के द्वारा यौन हिंसा के मामले में भारत को बदहाल देशों में पहला स्थान और गैर यौन हिंसा में दुनिया का तीसरा सबसे खतरनाक देश पाया गया है।
कार्य स्थल पर भी महिलाओं को पुरुषों की गलत मानसिकता का शिकार होना पड़ता है। यहां तक कि महिला वकीलों के साथ भी दुव्र्यवहार के मामले सामने आते है। अगर कानून को जानने वाली महिला के साथ यौन हिंसा या उत्पीडऩ हो सकता है तो अनपढ़ महिलाओं के साथ स्थिति कितनी भयावह होगी, कल्पना भी नहीं की जा सकती। भारत से इस बुराई को मिटाने के लिए महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को व्यापक सूचना, शिक्षा, संचार (आईईसी) के जरिये रोकने पर विचार किया जा सकता है।
इस तरह के अभियान मौजूदा कानूनी प्रावधानों जैसे घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीडऩ अधिनियम 2013 और भारतीय दंड संहिता की धारा 354, 354बी, 354सी और 354डी के अनुपूरक हो सकते हैं और उन्हें पूर्णता प्रदान कर सकते हैं। ये सभी कानून यौन प्रताडऩा और पीछा करने जैसे दुव्र्यवहार के अन्य स्वरूपों से सम्बंधित हैं। इन सभी कानूनों के बावजूद भी महिलाओं के प्रति अपराधों में कोई कमी नहीं आई है।
कई बात सामाजिक और पारिवारिक दबाव के चलते भी महिलाएं अपने खिलाफ होने वाली हिंसा की रिपोर्ट करने से हिचकिचाती हैं, जिसकी वजह से अपराधियों के हौसले बढ़ते हैं। आमतौर पर बदनामी के डर से बड़ी संख्या में ऐसे मामले दर्ज ही नहीं होते, खासतौर पर जब पीडि़ता को अपने पति, परिवार के सदस्य या फिर किसी परिचित के खिलाफ शिकायत दर्ज करवानी हो। कानून द्वारा महिलाओं को व्यापक अधिकार दिए गए हैं।
समय-समय पर न्यायिक शिविर लगाकर महिलाओं को उनके अधिकारों से परिचित करवाया जाता है। लीगर ऐड के माध्यम से महिलाओं को बिना किसी फीस के मुफ्त कानूनी सहायता उपलब्ध करवाई जाती है। हर जिले में महिला थाने स्थापित किए गए हैं, महिला आयोग बनाए गए हैं। अदालत द्वारा समय-समय पर महिलाओं की रक्षा के लिए कानून बनाए जाते हैं या पुराने कानूनों में समयानुसार परिवर्तन करके उन्हें और प्रभावी बनाया जाता है।