पूनम लगाह : लेखिका आकाशवाणी : साल 2019 की सबसे बड़ी हिट फिल्म थी कबीर सिंह। फिल्म के हिट होने की चर्चाओं के साथ ही एक बड़ा मुद्दा इस से जुड़ा यह भी रहा कि कैसे फिल्म की नायिका हीरो के गुस्से को, बुरे व्यवहार को सहती है जो उसे अपनी ‘बंदी’ बताता है और जिसे अपने गुस्से पे कोई काबू नहीं है।
प्यार की आड़ में लड़कियां अक्सर ऐसे व्यवहार को सहती आई हैं और कब तक सहेंगी इस पर बहुत चर्चाएं हुईं। हमारी हिंदी फिल्मों में शुरू से ही लड़की की छवि प्यार की देवी जैसी रही है जिसे अपने ‘नायक’ को निस्वार्थ प्यार देना है और उसकी आदतों को सुधारना भी है। बेशक यही रियल लाइफ में भी माना जाता है। शायद यही कारण है कि एक लड़की के चेहरे पर इसलिए तेजाब फेंक दिया जाता है क्योंकि वो अपनी पसंद-नापसंद जाहिर करती है और प्रस्ताव ठुकरा देती है।
कहते हैं सिनेमा समाज का आईना होता है, लेकिन सिनेमा समाज बनाता भी है। आज के युग में ऐसी फिल्मों का निर्माण हो रहा है जिसमें एक एक्ट्रेस अपने दम पर फिल्म हिट करने का टैलेंट रखती है और उसे मौके भी मिल रहे हैं। लेकिन यह तस्वीर का महज एक छोटा सा पहलू है। औरतों को अनेकों ही विशेषाधिकार हैं लेकिन समाज की सोच उसे आजादी से घूमने, पहनने, फैसला लेने का अधिकार आज भी नहीं दे पाई है।
भारत में कितने ऐसे राज्य हैं जहां औरत सुरक्षित मानी जाती है? खासकर बड़े शहरों में तो स्थिति और भी गंभीर है। एसिड अटैक्स और रेप केसेज पर जब कानून पीडि़त महिला को इलाज की सुविधा और राशि प्रदान करता है तो कई बार समझ नहीं आता कि असल में कहां ज्यादा काम करने की जरूरत है, उनके हर्जानों पर या दोषियों पर?
हालांकि पूरे विश्व में ही महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले कम नही हैं, लेकिन हमें आज बड़े स्तर पर इस डर को लेकर काम करने की जरूरत है कि हम सेफ क्यों नही हैं। कुछ महीनों की बच्ची से लेकर 80 साल की बुजुर्ग महिला तक का अगर शारीरिक शोषण होता है तो ऐसे समाज मे कौन सुरक्षित है। पॉप गीतों और फिल्मों में महिलाओं और ब्रांड्स को इस कदर भुनाया जा रहा है, जैसे ये महज मनोरंजन का साधन हों। सिनेमा और संगीत सजेशंस जैसे होने चाहिए कि समाज कैसा हो। बदकिस्मती से ये आईना ज्यादा है जिसमें हम अपना अक्स देखकर उसी को अंतिम सच मानकर चलने लगते हैं।
बड़े स्तर पर चला मीटू अभियान यही दर्शाता है कि हर लड़की कभी न कभी शारीरिक हिंसा का शिकार हुई है। पब्लिक प्लेसेस हों या घर-दफ्तर ये अंजाना सा डर जब तक खत्म नहीं होता, नहीं कहा जा सकता कि हम सुरक्षित हैं। इसके लिए जरूरी है कि सिनेमा में, मीडिया में, इश्तहारों में और बाकी हर जगह महिला की छवि सशक्त दिखाई जाए, उसे महज ग्लैमर के तौर पर पेश न किया जाए।
पिंक फिल्म इसका बेहतरीन उदारहण है, जिसमें समाज के सदियों से बने हुए गलत पैमानों की धज्जियां उड़ाई गई थीं। जिसका स्लोगन ही था ‘नो मीन्स नो’ यानि औरत की ना को ना ही समझा जाए, उस पर अपनी वासना या इच्छा न थोपी जाए। गलत धारणाएं तोडऩा ही असल में बेहतर समाज का निर्माण है और ये काम बुद्धिजीवियों को अधिक प्रभावशाली ढंग से करना होगा।
पिछले साल विदेश जाना हुआ तो इंग्लैंड में मैं और मेरी दोस्त रात को एक नदी के किनारे अकेले घूम रहे थे। एक पल के लिए मुझे इस डर का ख्याल आया कि क्या इस समय यहां अकेले घूमना सेफ है? मेरी दोस्त कहती है कि चिंता मत करो, यह इंडिया नही है। बड़े दुख की बात है कि सच में हमारे देश में स्थिति चिंताजनक है। रात को सफर करना, सुनसान राहों पर चलना, अकेले घूमने चले जाना ऐसे कितने ही काम हैं जो करते वक्त हम अक्सर सोचती हैं, क्या ये सेफ है? हालांकि इस मामले में गुजरात, हिमाचल या साउथ के कुछ राज्यों को लेकर मेरा अनुभव काफी अच्छा रहा है।