उदयबीर पठानिया
बड़का आला पार्टी भाजपा के आला होटल डी’पोलो के बाहर खड़ा था। भाजपाई भाई बी इधर-उधर बिखरे हुए थे। अचानक कुग्गु (सायरन) बजते हुए दो गड्डियां होटल में घुसीं। बड़के के कान भी कुत्ते की तरह खड़े हो गए। सब गड्डियों की तरफ भागे तो बड़का भी भागा। देखा तो पुराणे सीएम धूमल साब आए हुए थे। पर यह क्या कोई जिंदाबाद नहीं धूमल जी कोई श्रीराम नहीं। सब सुन्न थे तो बड़का सन्न था।
धूमल साब सबको दलाईलामा जी की तरह हाथ जोड़कर हॉल में घुस गए। लोग बी हत्थ जोड़कर खड़े रहे। बड़का हो गया खज्जल कि यह हो क्या रहा है ? लोग न नारे लगा रहे थे न ही आदर में जुड़े हाथों को खोल रहे थे। बड़का समज गया कि सब चलती के यार होते हैं। बड़के ने महंगे पेट्रोल की परवाह न करते हुए बड़ा सा सियासी पट्रोल का टीका लोगों को ठोंक दिया। बोला कि, ओ मुओ दो-चार नारे ही लगा देते? ऐसा भी क्या डर? बस इसके बाद लोगों ने बड़के जो उल्टा टीका ठोंका, बड़के की चीखें निकल गईं।
बंदे बोलते कि बड़कया हर वक्त कुत्तखाणी करनी ठीक नहीं होती। हम तो धूमल साब को देख कर इतणे भावुक हो गए थे कि उनके प्रति प्यार-मोहब्बत ने जुबान पर ही ताला ठोंक दिया। बड़कया, यह चुप्पी नहीं चित्कार थी। नारों से सियासत चलती, मोहब्बत चुप्पी में दम भरती है। हमने मोहब्बत की है। हमीरपुरिओं ने पांव पर कुल्हाड़ी मारी थी, तो यह बाकि परदेस के सिर पर लगी थी…। लोग बोल्ली जा रहे थे, बड़का सोची जा रहा था कि उसने बकवास करने में कमी कहां रखी थी,जो उसकी इतनी छितर परेड हो गई…