हिमाचल दस्तक : विजय कुमार : संपादकीय : किसी योजना का बजट गुपचुप तरीके से सरेंडर करना ठीक नहीं है। सरकार को इस बात की पूरी जानकारी होना आवश्यक है। यदि मामला कैबिनेट तक ले जाना संभव न हो तो संबंधित मंत्री को तो पूरी जानकारी होनी ही चाहिए। बात राज्य में अनुसूचित जाति बस्तियों के विकास के लिए शुरू की गई मुख्यमंत्री आदर्श ग्राम योजना की हो रही है।
इस योजना का बजट विभाग ने खुद ही सरेंडर कर दिया है। विभाग ने सरकार या संबधित मंत्री को इसकी जानकारी देना जरूरी नहीं समझा है। केवल वित्त विभाग से चर्चा के बाद सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग के अफसरों ने एक तर्क के आधार पर ही बजट सरेंडर कर दिया। यह तर्क था कि न तो पैसा खर्च हो रहा है और न ही खर्च हुए धन के उपयोगिता प्रमाण पत्र जमा हो रहे हैं। विभाग ने सभी जिलों के उपायुक्तों को इस योजना की शेष राशि लौटाने को कहा है। सरेंडर किया गया बजट करीब 13 करोड़ रुपये का है।
अफसरों के इस रवैये के कारण संबंधित विभाग के मंत्री को पार्टी विधायक दल की बैठक में असहज होना पड़ा है। कई विधायकों ने इस पर आपत्ति जताई। विधायकों की आपत्ति सही भी है। यदि फैसला सही था तो संबंधित मंत्री को बताने में हर्ज ही क्या था? अगर अफसर ही फैसले ले लेंगे तो सरकार और मंत्रियों का क्या औचित्य है? लोकतंत्र में लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों की भूमिका अहम होती है, क्योंकि उन्हें जनता ने चुना होता है।
सरकार भी इसी जनमत का हिस्सा है। यह अधिकार क्षेत्र के उल्लंघन का मामला है। इस पर गंभीरता दिखाई जानी चाहिए। हालांकि मुख्यमंत्री ने इस पूरे मामले की वस्तुस्थिति साफ करने को कह दिया है। मगर इससे बात बनने वाली नहीं है। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि फिर इस तरह का कोई मामला सामने न आए।