हिमाचल दस्तक : रमेश सिद्धू : संपादकीय : देश को आजाद हुए 72 साल हो गए लेकिन यह भारतीय समाज की विडंबना ही है कि हम आज भी समाज में मौजूद भेदभाव और बराबरी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अपराध घोषित होने के बावजूद प्रदेश में जातिगत व्यवस्था पर आधारित छुआछूत खत्म होने का नाम नहीं ले रही।
परिणाम होता है किसी न किसी स्थान से जाति के आधार पर भेदभाव या अत्याचार की घटना का सामने आना। जब शिक्षा के मंदिरों यानी स्कूलों में ऐसी घटनाएं घटती हैं तो जहन में कई तरह के सवाल गडमड होना लाजिमी है। मोबाइल व इंटरनेट के युग में तमाम दुनिया की जानकारी व संस्कृति की जानकारी पर आधारित बड़ी-बड़ी बातें करने वाला हमारा समाज आज भी किन बेडिय़ों में जकड़ा है। बीते माह मंडी जिले में आने वाले सीनियर सेकंडरी स्कूल किलिंग में बच्चों के साथ हुए जातिगत भेदभाव का तो हाईकोर्ट ने संज्ञान लिया है, लेकिन हमारे सामाजिक तानेबाने में व्याप्त इस बुराई पर लगाम लगने की उम्मीद फिलहाल दूर-दूर तक नजर नहीं आती।
जिम्मेदार नागरिक बनाने की जिम्मेदारी जिन स्कूलों पर है, वहीं बच्चों के मन में स्वर्ण व दलित की रेखा खींचना भेदभाव की इस खाई को और चौड़ा करना है। खास बात यह है कि स्कूलों में भेदभाव के ये मामले बच्चों के लिए चलाई गई मिड-डे मील योजना के अस्तित्व में आने के बाद ज्यादा सामने आने शुरू हुए। गांवों में स्थित कितने स्कूलों में मिड-डे मील तैयार करने की जिम्मेदारी कोई दलित निभाता है? मैग्नीफाइंग ग्लास लेकर ढूंढने पर भी शायद ही कोई नजर आए।
बच्चों को खाना खाने बैठाओ तो भी जाति आधारित अलग-अलग पांत होगी। स्कूल में कोई टूर्नामेंट हो तो बॉल पकडऩे, चूना डालने जैसी जिम्मेदारी तो दलित बच्चे निभाते दिख जाएंगे, लेकिन पानी पिलाने की जिम्मेदारी उन्हें नहीं दी जाएगी। किलिंग स्कूल का मामला सामने आ गया, जहां कोई शिकायत नहीं करता क्या वहां सब ठीक है? जवाब गांव के किसी भी स्कूल का मुआयना करने पर मिल जाएगा।
सरकार योजनाएं चला ले या कोर्ट संज्ञान ले, जब तक समाज खुद की मानसिकता नहीं बदलेगा, जब तक देवता का मंदिर छूने पर अपवित्र होता रहेगा और बकरा काटने पर शुद्ध हो जाएगा, तब तक इस खाई को पाटा जाना नामुमकिन है। करीब से नजर डालेंगे तो पाएंगे कि दलित वास्तव में ऊंच-नीच के दर्जे में बंटे हिंदू समाज का आईना हैं।